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चैत्र नवरात्रि (बासन्तिक नवरात्रि) 2 अप्रैल 2022 से 11 अप्रैल 2022

चैत मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को प्रारंभ होने वाला यह व्रत भारत के लगभग सभी प्रदेशों में शक्ति पूजा के रूप में मनाया जाता है।

नवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध यह त्यौहार हिंदू धर्म के प्रमुख त्यौहार के रूप में जाना जाता है। प्रतिपदा से लेकर नवमी तिथि तक जगत जननी जगदंबा माता दुर्गा के नौ रूपों का पूजन का प्रावधान किया गया है। भारतीय धर्म शास्त्रों के अनुसार माता दुर्गा को शक्ति के प्रतीक के रूप में माना गया है। महिषासुर मर्दिनी के नाम से जाने जाने वाली माता ने संसार के कल्याण हेतु अपने भिन्न-भिन्न नौ रूपों को धारण करते हुए असुरों का संघार किया था तथा उनके पाप एवं दुराचार से इस संसार की रक्षा की थी।

नवरात्रि के इस पावन त्यौहार पर माता के भक्त गण अपने अपने मान्यताओं के अनुरूप व्रत धारण करते हुए पूजा अर्चना करते हैं। इन 9 दिनों में रात्रि के समय श्री दुर्गा सप्तशती के पाठ का विशेष महत्व बताया गया है। महर्षि मार्कंडेय द्वारा रचित श्री दुर्गा सप्तशती में माता की सभी स्वरूपों के महिमा का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त जीवन में आ रही नाना प्रकार की समस्याओं को समाप्त करने हेतु मन्त्रों के प्रयोग का भी वर्णन किया गया है। यह मान्यता है कि नवरात्रि में व्रत का धारण करते हुए यदि पवित्रता पूर्वक श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ अथवा मंत्र का प्रयोग किया जाए तो निश्चित रूप से माता प्रसन्न होकर समस्याओं का अंत अवश्य करती है।

  • कलश स्थापना अथवा घट स्थापना की विधि एवं मुहूर्त

    1- प्रातः 06 बजकर 06 मिनट से 08 बजकर 34 मिनट तक।
    2- दोपहर (अभिजीत मुहूर्त) 11बजकर 36 मिनट से 12 बजकर 24 मिनट दोपहर

    नवरात्रि के प्रथम दिन अर्थात 2 अप्रैल 2022 को सर्वप्रथम प्रातः पूजा घर को अच्छी तरह धूल ले तथा अंत में गंगाजल छिड़क कर पूजा घर को पवित्र करें। पूरब -उत्तर दिशा में बालू लेकर बेदी बना लें तथा उसमें कुछ जौ डाल दें तत्पश्चात बेदी को भीगा दे और उस पर सुंदर सा लाल रंग का स्वास्तिक बनाएं अथवा लकड़ी की चौकी पर साफ सुथरा कपड़ा बिछाकर लाल रंग की स्वास्तिक बनाएं। इसके पश्चात मिट्टी का अथवा तांबे का कलश ले और स्थापित करें। कलश में गंगाजल अथवा गंगाजल मिश्रित पानी भरदे। जल भरते समय वरुण देव का ध्यान करते हुए "ॐ वरूण देवाय नमः " का जप करें। कलश में एक सुपारी, हल्दी की गांठ, दूर्वा, रोली, सिक्का डाल दें। तत्पश्चात कलश पर आम का पल्लव रखें। ध्यान रहे कि पांच पत्ती से कम का पल्लव न हो। कलश के ऊपर ढक्कन में अक्षत रखकर कलश को ढक दें। इस प्रक्रिया के पूरा होने के बाद लाल रंग के वस्त्र से कलश को लपेट दें। कलश को स्थापित करने के पश्चात सूखे नारियल को लाल कपड़े में लपेट कर कलावा लपेट दें तथा इसे कलश के ढक्कन पर स्थापित कर दें। कलश के ऊपर फूल की माला अवश्य अर्पित करें।

  • माता शैलपुत्री का स्वरूप
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    नव दुर्गा की पूजा में प्रथम दिन माता शैलपुत्री पुत्री का ही पूजन किया जाता है। शैलपुत्री का वास्तव में अर्थ पर्वत की कन्या से है। धर्म शास्त्र के अनुसार भगवान शिव की पत्नी सती दक्ष की पुत्री थी । एक बार राजा दक्ष ने अपने वहां विशाल यज्ञ का आयोजन कराया तथा उस यज्ञ में शामिल होने के लिए सभी देवी देवताओं को निमंत्रित किया परंतु महादेव से शत्रुता रखने के कारण उन्हें निमंत्रित नहीं किया परंतु माता सती अपने पिता दक्ष के यज्ञ में शामिल होने के लिए व्याकुल होने लगी और उन्होंने भगवान शिव से यज्ञ में शामिल होने का आग्रह भी किया परंतु महादेव ने माता सती से निमंत्रण प्राप्त न होने की बात कही तथा यज्ञ में शामिल होने की सलाह दी परंतु माता सती के प्रबल आग्रह के आगे भगवान शिव को झुकना पड़ा और माता को यज्ञ में शामिल होने की अनुमति प्रदान करना पड़ा। माता सती जब अपने पिता दक्ष के घर गई तो वहां अपने पति भगवान शिव शंकर के प्रति भयानक तिरस्कार देखा तथा उनके पिता दक्ष भी भगवान शिव को आपत्तिजनक शब्दों से संबोधित करने लगे। भगवान शिव के प्रति तिरस्कार तथा पिता के द्वारा आपत्तिजनक शब्दों को सुनकर माता को अपने गलती का एहसास होने लगा और उनका मन अत्यंत दुखित हो गया तथा अपने पति का और अपमान न सहने की प्रतिज्ञा में उन्होंने योगाग्नि द्वारा स्वयं को जलाकर भस्म कर दिया। इसकी सूचना जब महादेव को प्राप्त हुई तो उन्होंने वीरभद्र की सहायता से यज्ञ का विध्वंस कर दिया। माता सती अगले जन्म में हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मी और शैलपुत्री के नाम से प्रसिद्ध हुई।

  • माता का स्वरूप

    माता शैलपुत्री को परम दयालु माना जाता है। मातेश्वरी , भगवान शिव की भांति ही जल्द प्रसन्न होने वाली देवी हैं। माता शैलपुत्री के माथे पर जहां अर्धचंद्र सुशोभित है वही दाहिने हाथ में त्रिशूल तथा बाएं हाथ में कमल का पुष्प शोभायमान है। मातेश्वरी नंदी बैल की सवारी करती है। अर्थात इनका वाहन नंदी बैल है।

  • ध्यान

    हाथ में सफेद फूल, अक्षत लेकर माता वृषारूढ़ा के उपरोक्त वर्णित स्वरूप का ध्यान करते हुए निम्न मन्त्र को स्मरित करें।

    ॐ भगवती शैलपुत्र्यौ नमः।
    बंदेवांछितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखरम।
    वृषारूढा शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम।।

  • स्तुति

    माता के ध्यान के बाद निम्न मंत्र के साथ उनकी स्तुति अत्यंत कल्याणकारी फल प्रदान करने वाली कहीं गयी है।

    या देवी सर्वभूतेषु भगवती शैलपुत्री रूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।

  • ज्योतिष व माता शैलपुत्री

    शैलपुत्री अथवा हेमवती के नाम से प्रसिद्ध माता अपने भक्तों के जन्म कुंडली में निर्बल चंद्रमा के द्वारा उत्पन्न हो रहे सभी प्रकार के दोषों को दूर करने वाली मानी जाती हैं। चंद्रमा को अपने माथे पर धारण करने वाली भगवती चंद्रमा की निर्बलता को दूर कर सभी मनोरथ सिद्ध करने वाली कहीं जाती हैं।
    ऐसे सभी लोग जिनका चंद्रमा दुर्बल है उन्हें निश्चित रूप से आज पवित्रता पूर्वक माता का व्रत धारण करने के बाद मंत्रोचार द्वारा माता से आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।

नवरात्रि दूसरा दिन- ब्रह्माचारिणी

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नवरात्रि के दूसरे दिन माता ब्रह्मचारिणी का पूजन किया जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार जगत जननी जगदंबा पार्वती के अविवाहित स्वरूप को ब्रह्माचारिणी के नाम से जाना जाता है। जिसका अर्थ ब्रह्मा के समान आचरण करने वाली है। माता पार्वती ने अविवाहित काल में अत्यंत कठिन तपस्या की थी, जिसके कारण माता के इस स्वरूप को तपच्श्रारिणी भी कहा जाता है।

  • माता ब्रह्मचारिणी का स्वरूप

    मां के इस पावन स्वरूप को अत्यंत कल्याण करें माना गया है। मातेश्वरी श्वेत वस्त्र में सुशोभित होती हैं तथा उनके दाहिने हाथ में जप माला और बाएं हाथ में कमंडल सुशोभित होता है। जगत जननी का यह स्वरूप परम तेजस्वी और ज्योतिर्मय है। माता ब्रह्मचारिणी मानसिक, शारीरिक तथा आध्यात्मिक रूप से व्यक्ति के अंदर उत्पन्न दुर्बलता को शीघ्र दूर करने वाली कही गई हैं।

  • महाशिवपुराण के अनुसार

    एक बार देवर्षि नारद माता पार्वती के पिता हिमांचल के राजमहल में पधारे तथा उन्होंने माता पार्वती को देखते ही उनके विवाह की बात भगवान शिव से होने का सत्य सुना डाला। यह बात सुनकर हिमाचल नरेश तथा उनकी पत्नी अत्यंत व्याकुल हो गई परंतु विधि के अनुसार माता पार्वती जैसे ही विवाह के योग्य हुई उनके मन में पति के रूप में भगवान सदाशिव स्थापित हो गए। भगवान शिव को प्राप्त करने हेतु उन्होंने बहुत कठिन तपस्या किया। उनकी तपस्या से प्रभावित होकर भगवान शिव ने अपना रूप बदलकर परीक्षा के लिए कई बार शिव की निंदा किया परंतु माता ने सदैव ही अपने हृदय में भगवान शिव को स्थापित रखा। जिससे भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्होंने विवाह की शर्त स्वीकार की और अंततः जगत कल्याण के लिए भगवान सदाशिव तथा माता पार्वती का विवाह हुआ।

  • ध्यान मंत्र

    निम्न मंत्र के द्वारा माता ब्रह्मचारिणी का ध्यान करें-

    वंदे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृत शेखराम।
    जपमाला कमंडलु धरा ब्रह्माचारिणी शुभाम।।
    गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
    धवल परिधाना ब्रह्मरुपा पुष्पालंकार भूषिताम।
    परम वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोल पीन।
    पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम।।

  • जप मंत्र

    या देवी सर्वभूतेषु मां शैलपुत्री रूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
    दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
    देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
    ॐ देवी ब्रह्मचारिण्यै नमः।।

  • ज्योतिष व माता ब्रह्मचारिणी

    माता ब्रह्मचारिणी को स्वाधिष्ठान चक्र की स्वामिनी माना जाता है। सप्त चक्र में स्वाधिष्ठान चक्र मूल रूप से मंगल से संबंधित कहा गया है। सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि यदि किसी जातक के जन्मांग में मंगल नामक ग्रह निर्मल अवस्था में हो अथवा पापा क्रांत हो अथवा दशा वर्ग में निर्मल अवस्था के कारण नाना प्रकार के नकारात्मक एवं पूरे फल प्राप्त हो रहे हो तो माता ब्रह्मचारिणी क्या उपासना परम कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है।

नवरात्रि तीसरा दिन- माॅ चन्द्रघण्टा

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नवरात्रि में तीसरे दिन मां चंद्रघंटा का आराधना किया जाता है। माता चंद्रघंटा के आराधना का विशेष महत्व शास्त्रों में बताया गया है। इनके मस्तक पर चंद्रमा शोभायमान रहता है तथा यह अपने भक्तों को पराक्रम साहस धैर्य वीरता तथा बुद्धिमत्ता प्रदान करें सभी दुखों से दूर कर देती हैं। मूल रूप से माता चंद्रघंटा भगवती पार्वती के उग्र स्वरूप का ही अंश है। माता पार्वती पूर्ण रूप से चंद्रमा की तरह शीतल स्वभाव वाली हैं परंतु उनकी उग्रता का यह रूप भी भक्तों के लिए परम कल्याणकारी कहा गया है।

  • माॉ चन्द्रघण्टा का स्वरूप

    परम कल्याणमयी माता शेरनी की सवारी करती हैं तथा 10 भुजा धारण करने वाली है। उनके बाएं तरफ की चार भुजा में क्रमशः त्रिशूल, गदा, तलवार और कमंडल शोभायमान है तथा पांचवें हाथ से भक्तों को वर प्रदान करती हैं। दाहिने हाथ की चार भुजाओं में क्रमशः कमल, तीर, धनुष और मंत्र जाप की माला सुशोभित है और पांचवा हाथ अभय मुद्रा में दिखता है। भगवती का यह स्वरूप अर्थात उग्र रूप मात्र युद्ध में ही दिखाई देता है।

  • ध्यान मंत्र

    माता चंद्रघंटा का निम्न मंत्र के साथ ध्यान करें-

    वंदे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृत शेखराम।
    सिंहारूढा चन्द्रघण्टा यशस्विनीम।।
    मणिपुर स्थिताम तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
    खड्ग,गदा, त्रिशूल,चापशर,पद्म कमण्डलु माला वराभीतकराम।।
    पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानाअलंकार भूषिताम।
    मञ्जीर,हार,केयूर,किङकिणि,रत्नकुण्डल मण्डिताम।।
    प्रफुल्ल वन्दना बिबाधारा कान्त कपोलाम तुगम कुचाम।
    कमनीयां लावण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम।।

  • जप मंत्र

    या देवी सर्वभूतेषु माॅ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    अथवा माता चंद्रघंटा के बीज मंत्र

    ॐ ऐं श्रीं शक्त्यै नमः।

    का जप भी परम लाभकारी परिणाम प्रदान करने वाला सिद्ध होता है।

  • ज्योतिष व माता चन्द्रघण्टा

    ऐसी मान्यता है की माता चंद्रघंटा शुक्र की अधिष्ठात्री देवी है। यदि जन्म कुंडली में शुक्र निर्मल अवस्था में अथवा पापा क्रांत अवस्था में हो तो माता चंद्रघंटा की उपासना से शुक्र की दुर्बलता का नाश हो जाता है तथा शुक्र से संबंधित उत्तम फल प्राप्त होते हैं। यदि शुक्र निर्बल हो तो नवरात्रि में नियम पूर्वक व्रत धारण करते हुए "ॐ भगवती चंद्रघण्टायै नमः" का 11 माला नियमित जप करना चाहिए।

नवरात्रि चौथा दिन- माता कूष्माण्डा

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नवरात्रि की चौथे दिन माता कुष्मांडा का पूजन विशेष फलदायी होता है। अपने उदर से अंड अर्थात् संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रकट करने वाली माता को कुष्मांडा के नाम से जाना जाता है। संस्कृत भाषा में कुष्मांड का अर्थ कूम्हडे से होता है। कूम्हडे की बलि माता को सर्वाधिक प्रिय कही जाती है। जब सृष्टि का नामोनिशान नहीं था तथा सभी तरफ अंधकार ही अंधकार था तो माता कुष्मांडा ने ही ब्रह्मांड की रचना की थी। प्रत्येक प्रकार के सृजनात्मक कार्यों में सिद्धि प्रदान करने हेतु भगवती कुष्मांडा की आराधना विशेष फल कारी बताई गयी है। इनकी आराधना से भक्तों को नाम, यश, धन, वैभव, सुख एवं शांति की जहां सहज प्राप्ति हो जाती है त्रिविध ताप का नाश भी हो जाता है।

  • माता कुष्मांडा का स्वरूप

    माता कुष्मांडा को अष्टभुजाधारी भी कहा जाता है। अपनी आठ भुजाओं में माता कमण्डल, धनुष, बाण, कमल, पुष्प, अमृत पूर्ण कलश, चक्र तथा गदा धारण करती हैं। आठवें हाथ में भगवती सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला धारण करती हैं। यदि भक्त निर्मल मन से संपूर्ण रूप में स्वयं को माता के श्री चरणों में समर्पित कर दें तो निश्चित रूप से सुगमता पूर्वक परम पद प्राप्त कर सकता है। माता कुष्मांडा का वाहन सिंह है।

  • ध्यान मंत्र

    माता कुष्मांडा का ध्यान निम्न मंत्र से किया जाना चाहिए-

    वंदे वांच्छितकामार्थे चंद्रार्धकृत शेखराम।
    सिंहारूढा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्विनीम।।
    भास्वर भानु निभाम अनाहत स्थिताम चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
    कमण्डलु,चाप, बाण,पद्म सुधाकलश,चक्र,गदा, जपवटीधराम।।
    पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालङ्कार भूषिताम।
    मञ्जीर,हार,केयूर,किङकिणि,रत्नकुण्डल मण्डिताम।।
    प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कान्त कपोलाम तुगम कुचाम।
    कोमलाङ्गी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम।।

  • स्तुति

    या देवी सर्वभूतेषु माॅ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    अथवा माता कूष्माण्डा के मंत्र

    ॐ देवी कूष्माण्डायै नमः

    मंत्र का जप करने से संपूर्ण मनोरथ सिद्ध होते हैं।

  • ज्योतिष व माता कूष्माण्डा

    माता कुष्मांडा भगवान सूर्य की अधिष्ठात्री देवी है। यदि जीवन में रोजी -रोजगार, शासन- प्रशासन, मान- सम्मान अथवा सुर्य की दुर्बलता के कारण गंभीर संकट उत्पन्न हो रहे हो तो माता कुष्मांडा की आराधना से सूर्य के कारण उत्पन्न होने वाले सभी प्रकार के नकारात्मक फल समाप्त हो जाते हैं।

नवरात्रि पांचवां दिन- स्कंदमाता

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नवरात्रि के पांचवें दिन स्कंद माता की उपासना का प्रावधान है। यदि किसी भक्त को संतान उत्पन्न होने में समस्या हो अथवा संतान होने के बाद भी जीवित न रहते हो अथवा संतान से संबंधित किसी भी प्रकार का कष्ट हो तो स्कंद माता का पूजा मनोरथ सिद्ध करने वाला कहा जाए कहा गया है।
माता ने तारकासुर नामक आतंकी राक्षस से जगत को मुक्ति दिलाने हेतु स्कंद या कार्तिकेय या मुरुगन को जन्म दिया था। भगवान स्कंद को जन्म देने के कारण ही स्कंदमाता के नाम से जगदंबा को जाना जाता है।

  • स्कन्द माता का स्वरूप

    माता दुर्गा के इस पांचवें स्वरूप को अत्यंत दयालु माना जाता है। भगवती का यह स्वरूप मातृत्व को परिभाषित करने के साथ-साथ लोक कल्याण वाला कहा जाता है। माता की चार भुजाएं है। दाहिनी तरफ की ऊपर वाली भुजा में भगवान स्कंद गोद में है और दाहिनी तरफ नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प विद्यमान है। बाएं तरफ की ऊपर वाली भुजा में वर मुद्रा और नीचे वाली भुजा में भी कमल दल विद्यमान है। माता की सवारी शेर है तथा यह कमल के आसन पर विराजमान होती हैं।ऋल जिसके कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है।

  • ध्यान मंत्र

    स्कंदमाता का ध्यान निम्न मंत्र के साथ किया जाना चाहिए-

    वंदे वांच्छितकामार्थे चंद्रार्धकृत शेखराम।
    सिंहारूढा चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्विनीम।।
    धवलवर्णाविशुद्ध चक्रस्थितों पञ्चम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
    अभय पद्म युग्म करां दक्षिण उरू पुत्रधराम भजेम्।।
    पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालङ्कार भूषिताम।
    मञ्जीर,हार,केयूर,किङकिणि,रत्नकुण्डल मण्डिताम।।
    प्रफुल्ल वदनां पल्लवाधरां कान्त कपोलाम् पीन पयोधराम।
    कमनीयां लावण्यां चारू त्रिवली नितम्बनीम।।

  • स्तुति

    या देवी सर्वभूतेषु माॅ स्कन्दमाता रूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    अथवा

    ॐ देवी स्कंदमातायै नमः

    मंत्र का जप करने से संपूर्ण मनोरथ सिद्ध होते हैं।

  • ज्योतिष व स्कन्दमाता

    बुध नामक ग्रह की अधिष्ठात्री देवी को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है। यदि जन्मांग में बुध, निर्बल अथवा पापाक्रांत अवस्था में हो तथा बुध के कारण नकारात्मक स्थिति उत्पन्न हो गई हो तो स्कंदमाता की उपासना से बुध की नकारात्मकता पूर्णतः समाप्त हो जाती है।

नवरात्रि छठां दिन- माॅ कात्यायनी

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माता दुर्गा के छठे स्वरूप को माता कात्यायनी के रूप में जाना जाता है। नवरात्रि के छठे दिन इसीलिए इनकी पूजा की जाती है। कात्यायन ऋषि के घर में मां का जन्म होने के कारण इन्हें कात्यायनी कहा जाता है। द्वापर युग में पैदा हुए भगवान श्री कृष्ण को प्राप्त करने के लिए गोपियों ने माता कात्यायनी की पूजा की थी। ऐसी मान्यता है की अपने मनोकुल पति प्राप्त करने हेतु इनकी पूजा रामबाण सिद्ध होती है। तंत्र साधना में आज्ञा चक्र से संबंध होने के कारण माता को परमशुभ तथा शीघ्र मनोरथ पूर्ण करने वाला कहा जाता है। माता पार्वती जी महिषासुर नामक अजय राक्षस को मारने के लिए यह रूप धारण किया था इसीलिए मां कात्यायनी को युद्ध की देवी भी कहा जाता है।

  • माता कात्यायनी का स्वरूप

    माता कात्यायनी चार भुजा वाली देवी के रूप में जानी जाती हैं। बाएं हाथ में कमल और तलवार सुशोभित होते हैं जबकि दाहिने हाथों में वरद एवं अभय मुद्रा धारण की हुई है। इनकी सवारी शेर है तथा लाल वस्त्र में माता सुशोभित रहती है।

  • ध्यान मंत्र

    कात्यायनी माता का ध्यान निम्न मंत्र से किया जाना चाहिए-

    वंदे वांच्छित मनोरथार्थ चंद्रार्धकृत शेखराम।
    सिंहारूढा चतुर्भुजा कात्यायनी यशस्विनीम।।
    स्वर्णवर्णा आज्ञाचक्र स्थिताम् षष्टम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
    वराभीत करां षगपदधरां कात्यायनसुतां भजामि ।।
    पटाम्बर परिधानां स्मेरमुखी नानालङ्कार भूषिताम।
    मञ्जीर,हार,केयूर,किङकिणि,रत्नकुण्डल मण्डिताम।।
    प्रसनवदना पल्लवाधरां कान्त कपोलाम् तुगम् कुचाम्।
    कमनीयां लावण्यां त्रिवलीविभूषित निम्न नाभिम।।

    मन्त्र

    ॐ देवी कात्यायन्यै नमः।।

    चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
    कात्यायनी शुभं दद्याद् दानवघातिनी।।

  • स्तुति

    या देवी सर्वभूतेषु माॅ कात्यायनी रूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    इस मंत्र के जप से माता शीघ्र प्रसन्न होकर मनोकामना सिद्ध करती है।

  • ज्योतिष व कात्यायनी माता

    भारतीय ज्योतिष में माता कात्यायनी को बृहस्पति की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। जन्म कुंडली में बृहस्पति के अशुभ अवस्था के कारण उत्पन्न होने वाले सभी प्रकार के अशुभ परिणामों को माता के आराधना के द्वारा समाप्त किया जा सकता है।

नवरात्रि सातवां दिन- माॅ कालरात्रि

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नवरात्रि के सातवें दिन माता कालरात्रि का पूजन किया जाता है। कालरात्रि को भगवती पार्वती की रौद्र रूप माना जाता है। देखने में अत्यंत भयानक रूप वाली माता ह्रदय की अत्यंत कोमल है। देवी कालरात्रि का अर्थ ही मृत्यु समय अथवा रात्रि है। इसका मूल भाव सभी प्रकार के अंधकार को समाप्त करने वाली माना जाता है। सभी प्रकार के भूत प्रेत अग्नि वह शत्रु है बुद्धि हीनता आदि माता के स्मरण मात्र से ही समाप्त हो जाते हैं। आज के दिन माता काली के पूजा का भी विधान है। ऐसा माना जाता है की यदि जन्मांग में अल्पायु अथवा शत्रु द्वारा मृत्यु प्राप्त होने का योग है तो माता कालरात्रि की आराधना से समाप्त हो जाता है।
भारतीय धर्म शास्त्र के अनुसार शुंभ और निशुंभ नामक दो राक्षस जो समस्त देवलोक में आतंक मचा रखे थे उनके नाश के लिए माता दुर्गा ने कालरात्रि का स्वरूप धारण करते हुए उनका बध कर सृष्टि का कल्याण किया। इनका बध करने के कारण माता का नाम चामुंडा के नाम से भी जाना जाता है।

  • माता कालरात्रि का स्वरूप

    गधे की सवारी करने वाली देवी कालरात्रि का रंग पूर्णतः काला है तथा इनके चार हाथ हैं। माता के एक हाथ में खड़ग, दूसरे हाथ में लौह शस्त्र, तीसरे हाथ में वर मुद्रा और चौथे हाथ में अभय मुद्रा है। भयानक रूप में दिखने वाली माता सदैव अपने भक्तों के जीवन में आने वाले सभी अंधकार को तत्क्षण समाप्त करती हैं।

  • ध्यान मंत्र

    करालवंदना घोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।
    कालरात्रिम् करालिंका दिव्याम विद्युतमाला विभूषिताम्।।
    दिव्यम् लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम।
    अभयम् वरदाम् चैव दक्षिणोध्वाघ: पार्णिकाम् मम्।।
    महामेघ प्रभाम् श्यामाम् तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।
    घोरदंश करालास्यां पीनोन्नत पयोधराम।।
    सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरुहाम।
    एवम् सचियन्तयेत् कालरात्रिम् सर्वकाम् समृद्धिदाम् ।।

    मन्त्र

    ॐ देवी कात्यायन्यै नमः।।

    इस मंत्र के जप से माता प्रसन्न होकर सभी प्रकार के भयों का नाश करती है।

  • स्तुति

    या देवी सर्वभूतेषु माॅ कालरात्रि रूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

  • ज्योतिष वह माता कालरात्रि

    नवग्रहों में शनि की अधिष्ठात्री देवी का नाम कालरात्रि बताया गया है। यदि किसी के जन्मांग में शनि नकारात्मक स्थिति में होने के कारण नाना प्रकार के दुखों को प्रदान करता है तो माता कालरात्रि का पूजन शनि के द्वारा उत्पन्न सभी दुखों का निश्चय ही नाश करता है।

नवरात्रि का आठवां दिन -माता महागौरी।

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नवरात्रि में माता दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों में आठवें दिन महागौरी की पूजा का प्रावधान है। गौरी शब्द का मूल अर्थ गौरांग अर्थात पूर्ण गोरे रंग से है। अद्भुत गोरे रंग के कारण ही भगवती के इस स्वरूप को महागौरी के नाम से जाना जाता है। देवाधिदेव महादेव के अर्धांगिनी के रूप में भगवती के इस रूप की विशेष महिमा बतायी गई है। आज के दिन अधिकांश घरों में कन्या पूजन भी किया जाता है। माता सीता को उनके मनुकूल जीवनसाथी के रूप में भगवान श्री राम की प्राप्ति हेतु भगवती महागौरी ने ही आशीर्वाद प्रदान किया था। ऐसा माना जाता है कि यदि विवाह में गंभीर से गंभीर संकट उत्पन्न हो रहा हो तो नियम पूर्वक माता गौरी के पूजन से सभी बाधाएं समाप्त हो जाती हैं तथा मनवांच्छित वर की प्राप्ति होती है।

  • माता महागौरी का स्वरूप

    माता महागौरी देवाधिदेव महादेव के समान वृषभ की सवारी करती हैं तथा इनकी चार भुजाएं है। दाहिने हाथ की एक हाथ में अभय मुद्रा धारण करती हैं तो दूसरे हाथ में त्रिशूल। बाय एक हाथ में डमरू तथा दूसरे हाथ में वर मुद्रा। मातेश्वरी का यह स्वरूप परम शुभकारी तथा भक्तों के लिए संपूर्ण मातृत्व प्रदान करने वाला होता है। भगवान शिव की तरह महागौरी भी शीघ्र प्रसन्न होने वाली देवी हैं। सात चक्रों में सोम चक्र की अधिष्ठात्री देवी के रूप में भी माता गौरी को जाना जाता है।

  • ध्यान मंत्र

    निम्न मन्त्र के द्वारा माता महागौरी का ध्यान किया जाना चाहिए-

    वंदे वांच्छित कामार्थे चंद्रार्धकृतशेखराम।
    सिंहारूढा चतुर्भुजा महागौरी यशस्विनीम।।
    पूर्णन्दु निभाम् गौरी सोमचक्रस्थिताम् अष्टमम् महागौरी त्रिनेत्राम्।
    वराभीतकरां त्रिशूल डमरूधरां महागौरी भजेम् ।।
    पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालङ्कार भूषिताम।
    मञ्जीर,हार,केयूर,किङकिणि,रत्नकुण्डल मण्डिताम।।
    प्रफुल्ल वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोलाम् त्रैलोक्य मोहनम्।
    कमनीयां लावण्यां मृणालां चन्दन गन्धलिप्ताम ।।

    मन्त्र

    ॐ देवी महागौर्यै नमः।

    श्र्वेते वृषेसमारूढ़ा श्र्वेताम्बरधरा शुचि:।
    महागौरी शुभं दद्यान्महादेव प्रमोददा।।

  • स्तुति

    या देवी सर्वभूतेषु माॅ महागौरी रूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

  • ज्योतिष व माता महागौरी

    भारतीय ज्योतिष में छायाग्रह राहु की अधिष्ठात्री देवी माता गौरी को कहा जाता है। यदि किसी के जन्मांग में राहु की दुर्बलता अथवा पाप स्वभाव के कारण किसी भी प्रकार का नकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है तो माता गौरी के उपरोक्त मंत्रों के जाप से निश्चित ही राहु का पाप स्वभाव समाप्त होकर भक्तों का सभी मनोरथ पूर्ण होता है।

नवरात्रि का नौवां दिन- माता सिद्धिदात्री

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परम पावन नवरात्रि के निवेदन नवे दिन माता सिद्धिदात्री का पूजन किया जाता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है की माता का यह स्वरूप सभी प्रकार के मनोरथ को सिद्ध करने वाला होता है। मुख्य रूप से आध्यात्मिक स्तर को पूर्णता प्रदान कर मोक्ष की प्राप्ति होती है। माता सिद्धिदात्री का पूजन गृहस्थ एवं सन्यासी के लिए समान रूप से फलदायी होता है।
अणिमा, महिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, गरिमा, लघिमा, ईशित्व और वशित्व नामक आठ सिद्धियां इन्हीं माता के अधीन है। सभी देवी देवता इनकी तपस्या कर ऑठों सिद्धियों को प्राप्त करते हैं।

  • माता सिद्धिदात्री का स्वरूप

    देवी भागवत पुराण के अनुसार माता सिद्धिदात्री कमल पर विराजमान रहती हैं तथा शेर की सवारी करती हैं। माता की चार भुजाएं हैं। दाहिने भुजा के एक हाथ में गधा और दूसरे हाथ में चक्र तथा बाएं हाथ की दोनों भुजाओं में क्रमशः शंख और कमल का फूल धारण की हुई है। माता का यह स्वरूप भक्तों के सभी मनोरथ को पूर्ण करने वाला है।

  • ध्यान

    मातेश्वरी सिद्धिदात्री का ध्यान निम्न मंत्र से किया जाना चाहिए-

    वंदे वांच्छित मनोरथार्थ चंद्रार्धकृतशेखराम।
    कमलस्थिताम् चतुर्भुजा सिद्धीदात्री यशस्विनीम।।
    स्वर्णवर्णा निर्वाणचक्र स्थिताम् नवम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
    शंख,चक्र,गदा,पद्मधरां सिद्धीदात्री भजेम।।
    पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालङ्कार भूषिताम।
    मञ्जीर,हार,केयूर,किङकिणि,रत्नकुण्डल मण्डिताम।।
    प्रफुल्ल वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोला पीन पयोधराम्।
    कमनीयां लावण्यां श्रीणकटिं निम्ननाभि नितम्बनीम।।

    मन्त्र

    ॐ देवी सिद्धिदात्र्यै नमः।।

    सिद्ध गंधर्व यक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
    सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।

  • स्तुति

    या देवी सर्वभूतेषु माॅ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

  • ज्योतिष व मातेश्वरी सिद्धिदात्री

    भारतीय ज्योतिष में केतु के अधिष्ठात्री देवी के रूप में माता सिद्धिदात्री को माना जाता है। जीवन में केतु के कारण आ रही संपूर्ण विघ्न बाधाओं को तत्काल समाप्त करने हेतु माता के मंत्रों का जाप अत्यंत प्रभावकारी सिद्ध होता है।